क्यों?
प्रसिद्ध स्वास्थ्य संगठनों के अनुसार, फल, अन्न और साग-सब्ज़ियों के कम एवं पशु-उत्पादों के अधिक उपभोग के कारण मोटापा, मधुमेह, और कैंसर जैसे घातक रोगों की संभावना बहुत बढ़ जाती है। साथ ही साथ, इसका सीधा संबंध वनों की कटाई और जल के अपव्यय जैसे पर्यावरणीय समस्याओं से भी है।
संयुक्त राष्ट्रसंघ के अनुसार, मानवप्रेरित ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का चौदह दशमलव पाँच प्रतिशत (14.5%) हिस्सा केवल पशुपालन उद्योग से आता है। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) दिल्ली के शोधकर्त्ताओं ने भी पाया है कि वर्ष 2012 में भारतीय पशुपालन उद्योग से होने वाले मिथेन उत्सर्जन का आँकड़ा पन्द्रह दशमलव तीन प्रतिशत (15.3%) था। मिथेन एक शक्तिशाली ग्रीनहाउस गैस है। भारत के विशाल पशुपालन उद्योग से होने वाले भारी कार्बन उत्सर्जन का प्रभाव वैश्विक जलवायु परिवर्तन पर भी पड़ता है।
इसके अलावे, हमारी वर्तमान खाद्य उत्पादन प्रणाली भी अप्रभावी है, क्योंकि हम कई पोषक तत्व सीधे मनुष्यों के बदले पशुधन को खिलाते हैं जिसके परिणामस्वरूप वैश्विक भूखमरी निरंतर बढ़ती जा रही है। संयुक्त राष्ट्रसंघ की संस्था खाद्य एवं कृषि संगठन के अनुसार वैश्विक भूख सूचकांक में भारत अत्यंत कुप्रभावित देश के रूप में 119 में से 103वें रैंक पर आया है।
इन समस्यायों को ध्यान में रखते हुए, भारत एवं विश्व भर में अनेक संस्थाएँ कॉन्शस इटिंग इंडिया जैसे कार्यक्रमों की साझेदारी में, संयुक्त राष्ट्रसंघ जैसे संगठनों के दिशा-निर्देशों का पालन करते हुए, वनस्पति आधारित आहारों को बढ़ावा देने एवं पशु उत्पादों के न्यूनतम उपभोग के लिए नयी खाद्य निति लागू कर चुकी हैं।
इस परिवर्तन से होने वाले प्रमुख लाभों पर एक नजर डालिए!